पटना से ग्राउंड रिपोर्ट: बिहार की धरती पर जहां कभी महागठबंधन का जोरदार स्वागत हो रहा था, वही आज उसी गठबंधन के अंदरूनी झगड़े ने हवा को तल्ख कर दिया है। वैशाली की सड़कों पर घूमते हुए पता चलता है कि ये ‘फ्रेंडली’ लड़ाइयां असल में वोटों की कटाई बन रही हैं, जो एनडीए के हित में जा रही हैं।
बिहार चुनाव 2025 इंडिया गठबंधन: सीट बंटवारे की देरी ने क्यों बढ़ाई मुश्किलें?
बिहार चुनाव 2025 इंडिया गठबंधन की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बना है सीट शेयरिंग का अनिश्चय। महागठबंधन – जिसमें आरजेडी, कांग्रेस, विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) और सीपीआई-एमएल शामिल हैं – ने शुरुआत तो जोरदार की थी। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की बिहार अधिकार रैली ने जनसभाओं में ठाठ मचाया था, लेकिन अब ये उत्साह कहीं खो सा गया है। ग्रामीण इलाकों में बातचीत कर लौटते हुए लगता है जैसे गठबंधन के नेता खुद अपनी जड़ें काट रहे हों। कांग्रेस ने 48 सीटों पर उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी, लेकिन आरजेडी और वीआईपी की ओर से देरी ने ओवरलैपिंग नामांकन करा दिए। नतीजा? कम से कम 10 ऐसी सीटें जहां सहयोगी दल के उम्मीदवार एक-दूसरे के खिलाफ मैदान में हैं। ये फ्रेंडली कंटेस्ट कोई मजाक नहीं, बल्कि वोटों का बंटवारा हैं जो हार-जीत का फैसला कर सकते हैं।
प्रमुख फ्रेंडली कंटेस्ट: वैशाली से बचवाड़ा तक की सियासी जंग
इन फ्रेंडली लड़ाइयों का नक्शा खींचें तो वैशाली सबसे ऊपर आती है। यहां आरजेडी का उम्मीदवार कांग्रेस और वीआईपी के दावेदारों से भिड़ रहा है, जहां हर वोट की कीमत सोने जैसी है। तरापुर में भी वैसी ही तलवारबाजी चल रही है – आरजेडी की ओर से नामांकन के ठीक बाद सहयोगी दलों के टिकट कटने की अफरा-तफरी मच गई। कुटुंबा सीट पर स्थिति और पेचीदा है, जहां महागठबंधन के आंतरिक टकराव ने एनडीए को आसान रास्ता दे दिया।
बचवाड़ा जैसी मार्जिनल सीट पर तो हालात और गंभीर हैं। 2020 में यहां सिर्फ 484 वोटों का फासला था – सीपीआई के अब्देश सिंह भाजपा के सुरेंद्र मेहता से हार गए थे। अब कांग्रेस ने शिव प्रकाश गरीब दास को टिकट थमा दिया, जो पहले स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर तीसरे नंबर पर रहे। ये फाइट महागठबंधन की जीत को चूर-चूर कर सकती है। ग्रामीण कार्यकर्ताओं से बात की तो वे कहते हैं, “ये फ्रेंडली कहां की दोस्ती है? बस वोट कटवा रहे हैं।” ऐसी 10 सीटें गठबंधन के लिए खतरे की घंटी बजा रही हैं, जहां छोटी सी भूल भी बड़े नुकसान का सबब बन सकती है।
नेताओं के बयानों ने क्यों उजागर की गठबंधन की कमजोरी?
मुश्किलों को और गहरा करने वाले हैं नेताओं के खुले बयान। वीआईपी प्रमुख मुकेश साहनी ने तो महागठबंधन छोड़ने की धमकी तक दे डाली। उनका कहना था कि आरजेडी की ‘अड़ी हुई’ रवैये ने उनकी मांगों को ठुकरा दिया – जिसमें डिप्टी सीएम का पद भी शामिल था, बिना चुनाव लड़े। साहनी ने खुद मैदान में उतरने से इनकार कर दिया, लेकिन अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को समर्थन देने का ऐलान किया। राजनीतिक सफर में कभी चुनाव न जीत पाने वाले साहनी का ये रुख गठबंधन में तनाव बढ़ा रहा है। वे हेलीकॉप्टर से कैंपेनिंग करते हैं, पांच सितारा होटलों में प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर कामगिरी पर सवाल उठते हैं।
आरजेडी के तेजस्वी यादव सहयोगियों से लगातार बातचीत कर रहे हैं, लेकिन कोई ठोस फैसला नहीं निकला। सीपीआई-एमएल के दीपंकर भट्टाचार्य ने तो रात के दो बजे राहुल गांधी को फोन कर मुकेश साहनी को मनाने की कोशिश की। गठबंधन के नेता इन कंटेस्ट को ‘फ्रेंडली’ बताते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत ये बयानबाजी को खोखला साबित कर रही है। पटना के सियासी गलियारों में चर्चा है कि ये टकराव महागठबंधन की एकजुटता पर सवाल खड़े कर रहे हैं।
गठबंधन की ये उलझनें एनडीए को कैसे दे रहीं फायदा?
महागठबंधन की ये आंतरिक कलह एनडीए के लिए वरदान साबित हो रही है। जहां इंडिया ब्लॉक की रैलियां पहले जोश भरती थीं, अब वो हवा में उड़ गई हैं। उम्मीदवारों के नामांकन में आखिरी मिनट की भागदौड़ ने माहौल को भ्रमित कर दिया है। वैशाली जैसे इलाकों में कार्यकर्ता निराश हैं, कहते हैं कि ये सब कुछ ‘अपनी ही चाकू से घाव’ जैसा लग रहा है। गठबंधन की ये कमजोरियां बिहार विधानसभा चुनाव को एनडीए के पक्ष में झुका सकती हैं, खासकर उन सीटों पर जहां वोटों का बंटवारा फैसला करेगा।
बिहार की सियासत अब इन फ्रेंडली फाइट्स के अगले कदम पर टिकी है। जनता देख रही है कि महागठबंधन कब संभलेगा और ये उलझनें कब सुलझेंगी – क्योंकि चुनावी घड़ी तेजी से टिक-टिक कर रही है।

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